मानव तन के साथ परमात्मा ने अपने ही अंश के स्वरूप सबको एक पवित्र आत्मा से अलंकृत किया है ,
उन्ही अलंकारों की जीवन अनुभूति है रसात्मिका |
सबकुछ समाप्त होता हैं पर प्रेम यात्रा करता है
अपनी दिव्य चेतना के साथ
इस लोक से परलोक
वही यात्रा है रसात्मिका
हां सरिता का प्रवाह समय के साथ साथ बहुत तेज हो रहा है
उसे जल्दी है सागर मै अपना अस्तित्व खोने की
फिर भी उसे रास्ते मै आये कई पहाड़ो से सीखना है जीवन के जड़त्व को
और रोकना नहीं है अपना वेग
और जो समय से आगे चले वो सरिता अपने साथ उठा ना दे कोई बाद
हां डरती हूँ कही वो गंगा से कोसी ना बन जाए
और बहा ना ले जाए अपने साथ जुड़े कई सपने
हां ,आज भाग्य से तुम आमिले हो सागर की कही तुम्हारी ही आस मै भटक रही थी
अपनी विशाल धाराओ मै सरिता
तुमने सामने आकर आज थाम लिया उसकी प्रचंड लहरों को
की थमो तुम्हारी मंजिल ये नहीं ,
तुम रोहिणी हो तुमको तो अभी और उचाईयो पर जाना है
अपने वेग को शांत करो ,जीवन धारो को दो एक नया आयाम
हां शांत करो इस वेग को ,नहीं तो ये तुम्हारे साथ ना जाने कितनी बस्तियों को उजाड़ देगा
हां इस सागर के मिलन के बिना अधूरी है सरिता
सरिता को अपनी पहचान देने वाले सागर तुम मानो ना मानो सरिता तुम्हारा इस अंश अपने मै समेटे बह रही है जीवन की इन गहरी जल धाराओ मै ,इसी प्रतीक्षा मै कभी तो सागर से होगा उसका अंतिम मिलन
की वो मोड़ एक बार फिर आजाये ,
हां उस रात की तरह सजी हु मै
नयी दुल्हन की तरह और तुम साथ हो मेरे
पास हो बहुत फिर भी अहसासों से दूर नजर आते हो ,
इसलिए देनी पड़ी है शब्दों को जुबा
उसी महकती रात की तरह मै बन जाना चाहती हूँ नयी दुल्हन
मेहँदी के खुशबु वाले महकते हाथ और महकते मोगरे मै
एक बार फिर महक जाना चाहती हूँ मै , सूर्ख रंग मै रंगी हुए
,अपने आप मै जीवन के सारे रंगों को समेटे हुए एक बार फिर ............... आँखे बंद करती हूँ तो खो जाती हु
वही घंटो तुम्हारे काँधे पे सर रखे तुम्हे सुनते हुए
कितना ,खुबसूरत है था ना वो पल ,
सब कुछ मन की कही फिर भी उन अनकही सी
गुनागुना रही हूँ मै,
उन पलों को सुनहरी धुप मै नदी के किसी किनारे तुम्हारे साथ
हां मेहंदी लगे हाथो मै ,हां तुम्हारे हाथो मै हाथ ।
पहले कभी कह नहीं पायी ,हां घूँघट उठाने से पहले की मुह दिखाई मांगना चाहती हूँ आज तुमसे आज ,
सब कुछ है पर सुनी पड़ी है कदमो की आहटे इसीलिए छम -छम करती पायलों केसाथसब कुछ खनकता हुआ महसूस करना चाहती हूँ तुम्हारे साथ हां इसीलिए मांगना चाहती हूँ पायले, एक बार फिर बन जान चाहती हूँ दुल्हन तुम्हारे साथ तुम तो सब कुछ भुलाए बैठे हो ,तो फिर क्यों ? ना गुन्गुनालू ये पल दोबारा तुम्हारे साथ
सरिता -सागर
मन को लागे नए पर ,दूर तक उड़ने को जो चाहा वो मिल गया सनम फिर क्यों दिल कहे तेरे काँधे पे बैठ जाने को ऐसा लगे की बरस रहा प्यार तेरा ,अंखियों से झगड़ रहा अधिकार तेरा फिर भी , किसको मानु अपना तुझको जो सोप गया जीवन उसको जो आज जता रहा अधिकार अपना कोई नहीं अपना जानती हूँ सच हो नहीं सकता सपना .सपने पुरे करने के लिए जिगर चाहिए और वो होसला जो सिर्फ तुम्हारे पास है हां जी ,जो सिर्फ मेरे साथ है
आज जनम दिन है मेरी दादी बंसतबाई का हां ,और आज जनम दिन है सरस्वती का उस सरस्वती का जो कही पूरी नहीं हो सकी ! हर तरफ लोग पहन रहे बसंती रंग ,आज रंगा हर कोई इसी बसंत के रंग मै फिर क्यों या याद रही है मुझको बसंती बाई{जीजा} हां वो इतनी बुदी महिला ही थी जिसने स्वीकार किया था अपने पोते का ये प्रेम विवाह हां बहुत अलग थी वो रुदिवादी विचारधाराओ से ,वो करवाना चाहती थी नोकरी मुझसे बनवाना चाहती थी अपने पोते का घर ,आँगन हां आज तुम्हारे ही रूप मै जनम हुआ था सरस्वती का | हां ,सरस्वती कभी पूरी नहीं होती ,क्योकि वो इसीतरह जनम लेती रहती है कभी .माँ तो कभी दादी बनकर तुम्हारे रूप मै । तुम युही अपने आशीर्वाद के साथ हम्रारे दिलो मै निवास करती रहोगी ,औरदेती रहोगी ज्ञान और सोभाग्य आशीष सदा , हां तुम्हारा ही तो रूप है आज की सरस्वती हां तुम अशिश्ती रहो युही सदा ,दादी बनकर तो कभी माँ बनकर
क्या होती है माँ ?
नहीं पता मुझको ,क्योकि मै बन नहीं सकी कभी माँ
हां अपनी माँ के साकार रूप को देखा है मेने ,
इसीलिए ही शायद मन अपने स्त्री होने के अपने अस्तित्व को खोज रहा है
मुझको याद है उसका अलसुबह उठ जाना ,हमारे लिए तैयारी करना
कितना प्यार गुंधा होता था ,उन मैथी के पराठो मै ?
हां ,अब मुझको पल पल याद आता है जब मै नहीं बन सकी हु एक माँ
माँ के सपनो के आँगन से तो मै निकल आई हु यतार्थ जीवन मै
और हां बन नहीं सकी हु माँ
हां माँ कभी मै रो नहीं सकी तुम्हारी गोद मै सर रखे ,किस्मत से शिकायत किये की मै नहीं बन सकी हु माँ
जानती हु मै जब तुम देखती हो मुझको किसी खिलोने से खेलते हुए तो क्या सोच रही होती हो ?
और होले से एक आवाज लगाकर कहती हो ,अरे क्या बचपना है ये !
मै जानती हु ,तुम कभी मेरे असीम दर्द का कोई अहसास मुझको नहीं कराना चाहती |
इसीलिए मुझको एक हलकी सी आह्ट से ही खीच लेती हो ,अपने आँचल मै
सच कहू तुमको पाकर सारे दर्द भूल जाती हु और बन जाना चाहती हु एक बार फिर वही छोटी सी तुम्हारी बेटी
हां तुम्हारा ह्रदय बड़ा विशाल है की तुमहंस कर छिपा देती हो या कभी डांट कर
मुझको पता है एक किसान तभी खुश होता है जब उसकी बचाई बिजवारी भी उसको भरपुर फसल देती है |
पत्थर पूजते पूजते भी अब हार गयी हु माँ ,
इसीलिए भाग जाना चाहती हु ,इस दुनिया से दूर छीप जाना चाहती हूँ तुम्हारे आँचल मै
हां इसीलिए की कभी ना बन सकुगी माँ |
तुम और ये जीवन दोनों एक दुसरे के पूरक हैं तुम बिन जीवन नहीं ,तुम बिन मै नहीं मेने पाया है तुममे वो पूरा इंसान जो मुझको कही पति नहीं नजर आया , मेरे शब्दों को तुमने ही दिया है साकार रूप , और जीवन जीवन को दिया है सार्थकता का साथ हां तुम ,वो धीरज ही तो हो ,जिसके बिना जीवन का कोई मोल नहीं कभी कह नहीं पाती वो हजारो बाते तुमको जो पग पग देती है मेरा साथ और तुमको समझा नहीं पाती ,अपनी घुटन मुझको तलाश है आध्यात्म की । और तुम्हारे स्नेह ने बना रखा है मुझको अपने काँधे की चिड़िया तुमने ही दिया है जीवन को अनंत सोच का आकाश फिर क्यों अपने काँधे पे ही बिठाये रखना चाहते हो अपनी इस चिड़िया को ? तीसरी फ़ैल कहते कहते ,तुमने मुझको ला खड़ा किया है जीवनको पी एच डी के सामने क्यों ,डरता है तुम्हारा असीम स्नेह की कही धारण ना करलू कोई भगवा ? नहीं ,मेने तुम्हारे रंग का भगवा धारण किया है और अब मै शायद इस जन्म मै और किसी रंग मै ना रंग सकू|
कैसे समझाऊ तुमको ? जीवन की ये धारा अब जिस और मुड़ चली है वो अब किसी बंधन मै बंधा नहीं है| वो मुक्त है ,अनंत आकाश का राहू है ,जो पाना नहीं,देना चाहता हैं | अपना जीवन समर्पित करना चाहता है दुखियों की सेवा के नाम
क्यों समझा नहीं पारही ये घुटन तुमको ? शायद इसीलिए की तुम और जीवन एक दुसरे के पूरक हो !
जो जानता है ,सूरज और चाँद तक उसकी पहुँच नहीं होगी , वो रखता है सितारों से वास्ता कभी मानता है हनुमान जी को , तो कभी शनि मंदिर गुहार लगाता क्या मंदिरों मंदिरों भटकने से बदल जायेगी तक़दीर ? हां ,अगर ऐसा ही कुछ होता तो शायद तो राम को कभी ना होता वनवास और वैदेही यु हरी ना जाती , रावन जेसा महाज्ञानी ,सबसे बड़ा शिव भक्त ,क्यों ? ना बदल सका अपनी तक़दीर जो तय है ,वो अब बदला नहीं जासकता उसमे कुछ सुधार किया जासकता है बस चाहो तो तुम सुधार लो अपने सितारे या कह लो अपनी तक़दीर मंदिरों मै नहीं बस्ता आज का भगवान् वो तुम्हे मिल जाएगा किसी चाय की होटल पर अपने नन्हे हाथोसे कप प्लेट धोता ,कही किसी कोने मै तुम्हारी झूठन उठाते , उसे पूजो ,उसको प्रसाद चदाओ ,उसे अपनाओ बदल जाएगी तकदीरे । बदलना है तकदीरों को तो बदलो अपने घरो मै दिन भर तुम्हारे लिए पसीना बहाती ,कभी ना शिकायत करने वाली तुम्हारी माँ.या पत्नी की तक़दीर बहुत कुछ है बदलने को अभी बाकी , हां बस एक बार शुरुवात तो करो ,हां किसी मंदिर से नहीं अपने ही उस घर से जहां तुमने अपनी पिता को रूद्र का अवतार नहीं माना और कभी माँ को कभी शक्ति समझ कर नहीं पूजा जहा पग ,पग किया तुमनेशक्ति के रूप मै आई अपनी पत्नी का अपमान सुधारना है सितारों को तो ,शुरुवात अपने घर अपने सबसे बड़े तीर्थ से करो । हां यकीं है मुझको बदल जाएगे सितारे तुम्हारे और तुम टाटा ,बिरला ना सही एक खुबसूरत जीवन के मालिक जरुर बन जाओगे | वो खूब सूरत जीवन जो शायद टाटा ,बिरला और अम्बानी के पास भी नहीं पाजाओगे वो असीम शान्ति ,सुकून और चैन ,जिसके लिए दुनिया हिल स्टेशनों पे भटकती है हां .जो जानता है सूरज और चाँद उसकी पहुच नहीं होगी , वो रखता है सितारों से वास्ता| सरिता
जीवन मै किसका कब तक ,क़हा तक साथ है ये तय किया है विधाता ने , हम तो सितारों के हाथ की कठपुतली है मात्र , ये हमको पता है ,तो फिर क्यों घबरा जाते हो तुम इन सितारों के बदलने से सरिता कभी रस्ते नहीं बदला करती ,उसका रास्ता कठिन है पर फिर भी वो बेताब है सागर से मिलने को । उसका जीवन इसी साँस के साथ बंधा है ,की उसको सागर से मिलना है । उसके रास्ते मै अभी तो कई मोड़ आने वाले है पर मेरे सागर तुम मत घबराना क्योकि सरिता लक्ष्य हिन् है तुम्हारे मिलन केबिना | ये जीवन की परिणिति है ,की जो सबको आसानी से मिल जाए वो किसी एक के लिए अमूल्य होता है | मेरे सागर तुम तो अमूल्य हो ,क्योकि तुम्हारी कीमत सरिता ही जानती है , और तुम सरिता का प्रारंभ भी तुम्हारे ही जल के जमने से हुआ है और उसका अंत भी तुममे विलीन होना ही है | मुझको मेरा अस्तित्व देने वाले ,इस अंत हिन् जीवन के तुम ही तो सच्चे साथी हो । बाकी तो सब वासनाओं से भरे ,स्वार्थ के पुजारी है | ओ सरिता ओ सरिता ,ये पुकार है सागर की तो फिर क्यों दोडी नहीं आयगी सरिता तुम्हारी इस पुकार पे | सूना है किसी से की समझदार सितारों पे हुकूमत करते है तो काहे विशवास नहीं करते सागर तुम ? सितारों ने तय किया है सागर -सरिता का ये अद्भुत मिलन तो क्यों घबराते हो इस मिलन से तुम |
घुटती हुई एक लड़की ने हाथ ही तो बढाया था तुम्हारी तरफ विशवास का अनोखे थे ,सितारे तुम्हारे शायद ये सोचकर लेकिन तुम कभी समझ ही नहीं सके उसके मन की गहराई और तुमने तोल दिया वासना और धन की चाहत से , आत्मा की गहराई को , शायद एक नादान कर बैठी थी तुम पे विशवास करने की खता सोचा था तुम भीड़ से जुदा हो ,गहरे हो तुम पर तुम तो मुझसे भी कमजोर थे हां कसूर क्या था उसका ?जिसने पूज लिया था तुमको ,उसका ? क्या श्रद्धा ,समर्पण और विशवास का यही सिला है ? अगर है तो ये मेरा कसूर है के एक नादान बड़ा बैठी विशवास का हाथ तुम्हारे साथ अपनी ही निगाहों मै छोटे साबित कर दिए है तुमने श्रद्धा औरनिस्वार्थ स्नेह जैसे शब्द एक पल मै झुका दिया है फरिश्तो के सामने मेरा मस्तक किनसे शर्मिन्दा हु ,सोच रही हु तुम से ,या अपने आप से शायद यही कसूर था उस नादान लड़की का जो बड़ा बैठी तुम्हारी तरफ विशवास का हाथ कभी ना सिख पाने वाला पाठ पड़ा दिया तुमने उस नादान लड़की को हां ये ही था कसूर उसका ,की उसने तुमको खुदा माना |
जीवन मै हमेशा आत्मा दुदतीअपना आकाश दुदती रही अपना अस्तित्व ,कही मिला नहीं मुझको अपने होने का अस्तित्व एक लड़की कभी पा ना सकी माँ और पिता की गोद मै सर रखकर रोने का अहसास ] एक पत्नी कभी पा ना सकी ,अपनी मुसीबत के आगे खड़े होने वाले पति को या ये कहने वाले को की तुम कोन होते हो मेरी पत्नी को अपमानित करने वाले क्या हु मै ? बिस्तर पर सजा सामान ,जो चाहे ना चाहे उसे आगोश मै आना ही होता है । कोई समझ ही नहीं पाया ,या मै समझा ही नहीं पायी की मै भी एक औरत हु जो चाहती है अपना एक आकाश | हर कोई अपना बन कर मिला क़हा मै बहत प्यार करता हूँ तुमसे , पर रोने को कभी कोई कान्धा नहीं होता था | सोचती हु क्या पुरुष को असीम स्नेह और दुलार देने के लिए मेरा जनम हुआ है ? क्या कभी कोई ये नहीं कहेगा की कब तक तुम सहती ही रहोगी ? क्या कोई शिकायत नहीं करोगी तुम ? हां नहीं शायद क्योकि पत्थर को पूजा तो संसार उसे भगवान् कह देगा लेकिन किसी नारी ने अपने को मिटाकर किसी के प्यार को सीचा तो संसार उसे कुलटा बना देगा | कितनी अजीब विदाम्ब्नाये है जीवन की तुम करो अधिकार और मै करू तो शोभा नहीं देता | समझ ही नहीं पायी जीवन की इस उन्सुल्झी पहेली को की क्या हूँ आखिर मै ? क्या तलाशती हु मै ? खो ही गयी हु मै ,पगला ही गयी हु जीवन से कभी ना मिलने वाले पिता के स्नेह और माँ की गोद को घुट गयी हु मै | दिल कहता है पहाडो की चोटियों पे जाकर अपने मन की सारी वेदनाओं को जोर जोर से आवाज लगाकर उस ईश्वर से कहूँ की क्यों वंचित रखा है उसने मुझसे जीवन मै मिलने वाले हर रिश्तो के स्नेह को ? अपने अपनों को चाहा ,परायो को चाहा .पर सभी पागल ही समझते रहे | कहते रहे पगली है ?सच कहू शायद पागल होना जयादा ठीक है इस जीवन से क्योकि किसी पागल को नहीं चाहिए होती अपने अस्तित्व की तलाश ?
जीवन के सारे भावो मै अपना सब कुछ समर्पित कर देने के बाद भी .कही कोई नहीं ऐसा जिसमे दिखाई देता हो मुझको अपना अस्तित्व | सब कुछ छोड़ कर ईश्वर ने दिया है मेरा साथ ,दिखा रहा है मुझको वो एक नया रास्ता ,नया आकाश हां एक नया आकाश मेरी आत्मा के अस्तित्व का |
दम तोड़ रही है है जिन्दगी एक अजीब सी घुटन मै तुम क़हा हो ,दूर इस अपनत्व और प्यार से दम तोड़ चुकी है दिल की हसरते अब , तुम्हारे साथ एक बार फिर जी उठना चाहती है पर तनहा हु मै इस घुटन मै ,आज भी क्यों साथ के साथ भी महसूस होती है ये घुटन सोचती हु कोई राम बनकर आजाये ,और इस अहिल्या का भी उद्धार करे आजाद कर दे इस अहिल्या को भी इस पत्थर की घुटन से हां जीना चाहती हु मै भी ,आजाद होकर जीवन की इस घुटन से