मंगलवार, 31 मई 2011

मीरा

मीरा अपने कन्हियाँ से इतना स्नेह करती थी 
की जीवन के अनन्य स्नेह के रूप अपने पति में भी 
वो अपने कृष्ण जी को ही देखती थी |
इस अद्भुत भाव को व्यक्त करते उनके ये शब्द .


"मेरे तो गिरिधर गोपाल दुसरो ना कोई ,
जाकें सिर मोर मुकुट मेरों पति सोई ,"
   मीरा  

कलयुग में तुम्हारी जरुरत हैं कान्हा !

स्नेह की
बड़ी -बड़ी परीभाषाएँ
बोलते सूना हैं पडा हैं ,देखा हैं,लोगो को
और अंत में सब को सत्य से मुँह मोड़ते ही देखा हैं |

क्या ये ही हैं स्नेह ?
या फिर किताबो के पन्नो से लिखना ही,
जीवन सत्य हैं
उसमे शब्दों के सच की आत्मा कँहा हैं
कँहा हैं स्नेह सागर |

मेरे कृष्णा !
तुम्हरा स्नेह सागर खाली होगया हैं अब ,
जिसकी जगह भरी हैं कठोरता ने ,
सहानुभूतियों ने , स्वार्थी होने के नामो ने ,

कँहा हो 
कान्हा जी आप 
इस संसार में , 
सब कुछ तो झूठा हैं यंहा 
एक नहीं सब रिश्ते झूटे हैं |
सब लुटने और मन को तीर चुभोने लगे हैं


कँहा हो कान्हा ?
स्नेह के सागर इस संसार के 
कलयुग में तुम्हारी जरुरत हैं कान्हा
अपने बैकुंठ से चले भी आओ ,
चले भी आओ ,

अनुभूति














राधा का विश्वास


ओ कन्हियाँ
तेरी बावरी राधा ,
तुझे यमुना तट पुकारे ,
ओ श्याम ,
अपनी बंसी ले आओ ,
नदियाँ किनारे
तुम्हारी बंसी बिन सूना पडा ,
राधा का संसार ,
विशवास हैं राधा को ,
मेरे कान्हा जी आयेंगे ,
बाटनिहारती खड़ी हैं राधा रानी
बूंद - बूंद गिराती जाती हैं,
अखियाँ से पानी ,
कान्हा जी
अब तो आजाओं
तुम ही कहो हो राधे जब पुकारोगी
में चला आउंगा , यमुना किनारे
चले आओ ,
श्याम
!
राधा रानी का ये विशवास
पूरा कर जाओ ,
वो पगली कुछ नहीं मांगे ,
वो खो जाए ,बस सुन ,
तुम्हारी मुरली की धुन
युमना तट चले आओ एक बार
अपनी राधा का विश्वास पूरा कर जाओ !
मेरे मुरलीवाले!
मेरे कोस्तुभ धारी !
श्री चरणों में अनुभूति

रविवार, 29 मई 2011

हां मेरे प्रभु राम !

मेरे राम ,

ये संसार कहता रहा राम जी ने
सीता जी का त्याग किया |
सोचती हूँ !
कभी कोई समझ सका होगा राम,
आप के अंतर मन की वेदना को 
विरले ही समझ पाया होगा कोई
वो राम जिन्होंने एक काक {कोवे }
के सीता को परेशान करने पे ,
ब्रह्मा अस्त्र का उपयोग किया था |
संसार की सबसे बड़ी शक्ति का प्रयोग 
एक छोटी सी बात के लिए किया था ,
वो राम अपनी सीता का त्याग केसे कर सकते थे |

दुनिया कही न कही ये आरोप आप पे लगाती रही राम !
की राम जी ने सीता को त्याग दिया |
वो नहीं जाने ,
उन्ही जनक नंदिनी सीता के लिए ,
विशाल सागर को जीता था आप ने
केसे काटा होगा पल -पल कब कोन समझा हैं राम !

आप तो अपने होठों को बंद किये बस सहते ही रहे ,
कँहा कह सके अपनी पीड़ा को ,
बस त्याग और तपस्या की मूरत ही बने रहे .
तडपती रही आत्मा ,
दिखाएँ नहीं आप ने कभी अपने आसू 
बने रहे कठोर .


निभाते रहे पुरुष की मर्यादा
हां राम !
असीम स्नेह के सागर को छिपा जाना,
भी एक बहुत बड़ा त्याग था |

आप ने ही विशाल सागर को पार किया था ,
दशानन का वध|
हां , राम ये एक नारी का असीम स्नेह ही तो था
जिसके आगे आप अपने से भी विवश थे |
क्योकि अनन्य भाव और श्रद्धा से समर्पित थी वो नारी |
सीता तो अपने अश्रु बहाकर , 
व्यक्त कर देती थी अपनी पीड़ा को
और राम आप तो अपने अंतस से जलते ही रहे ,
कभी खोल न सके आप अपने होठो को , ,

सीता ने भी कितना सहा हैं राम ,
पवित्र होने के बाद भी , 
पराये पुरुष के घर में रहने की ,
अग्नि  परीक्षा से गुजरना पडा राम !

सामने होते हुए भी नहीं लगा सके ,
अपनी सीता को तो गले आप 
सोचती हूँ राम का ये रूप क्यों नहीं देखती दुनिया .
नारी की वेदना तो समझती हैं लेकिन 
वो जो रो नहीं सकता ,कह सकता
क्या वेदना नहीं उसकी?
स्नेह का अधिकारी वो नहीं !

कँहा चेन दिया दुनिया ने आप को !
पल -पल आप के नितांत
निजी विषयों के पीछे  ही पड़े रहते हैं  
दुनिया के लोगों ने तो उस सुख में भी लगा दी आग 
अपने प्राणों से प्यारी सीता को
छोड़ने का प्रश्न आप से किया ,
राम ,कितनी बड़ी संकट की घड़ी होगी ,
जब लगाया होगा ,
जब अपनी सीता को कहा होगा 
स्वार्थी , सहानुभूति का नाम दिया होगा |


न जाने कब तक भुगतते रहोगे उन शब्दों  की पीड़ा 
केसे किया होगा ?
अपनी आत्मा को शरीर से निकालने का ये काम 
हां राम ! 
केसे किया होगा अपनी सीते का त्याग ?


केसे जीते होगे ?
बिना अपनी सीते के , बड़े थे|
किसको कहे होगे अपनी पीड़ा !
घुटते रहे होगे ,कितना राम !

फिर भी संसार की सेवा के काम में ,
अपने दर्द को छिपा दिया राम आप ने
कोन समझ सका हैं आप की वेदना को !
सीता ही समझ सकी ,
क्योकि वो नहीं चाहती थी |
राम का मस्तक कभी 
किसी नारी के लिए संसार के सामने झुके
वो नहीं देना चाहती थी 
आप को दुनिया के सामने कोई 
नया नाम , 
इतना बड़ा त्याग किसी साधरण इंसान 
के बस की बात नहीं राम ,
आप अवतार ही हो स्वयं शिव का , 
कृष्ण का ,
नारायण का
राम आप राम ही हैं इसिलए 
इस संसार में आज भी दुनिया जप्ती हैं 
आप का नाम
ओ मेरे राम ,
मेरा  जीवन यूँ ही निकल जाए,
लेते -लेते आप का नाम |
इतनी शक्ति मुझे भी सहने की दीजों
और अपनी ही तरह कठोर होने का वरदान मुझे भी दीजों |

हां मेरे प्रभु राम !
शीश झुकाके करती हूँ 
आप के उस अनन्य त्याग को नमन
इतनी ही सहने की शक्ति मुझे भी देना ,
बस मेरे राम !

अनुभूति

कर रही आत्मा मेरी वीदिरण पुकार


मेरे कोस्तुभ धारी !
मेरे कान्हा !
कर रही आत्मा मेरी करुण पुकार
अब नहीं सहा जाता ,
चले आओ मेरे प्रभु !
बस एक बार
इस आत्मा की सुखी धरती पे
छा जाओ बन के घटा
बरस जाओ इस प्यासी आत्मा पे एक बार |
सुन लो ।
एक बार मेरी ये करुण पुकार !
अनुभूति

स्नेह का एक रूप ये भी !

मेरे कोस्तुभ धारी !
के चरणों में 
खुद को भी नहीं पता ,
पता हो तो भी स्वीकार करने की हिम्मत नहीं होती |
ऐसा भी होता हैं मेरे कन्हियाँ !

शनिवार, 28 मई 2011

हमें रास्तो की जरूरत नहीं !हमें तेरे पैरों के निशा मिल गये हैं |


मेरे कोस्तुभ धारी !
मेरे कान्हा !
के श्री चरणों में अर्पित एक अत्यंत भावमयी रचना ,
एक -एक शब्द आत्मा को छूकर जाता हुआ.|
हमें रास्तो की जरूरत नहीं ,हमें तेरे पैरों  के निशा मिल गये हैं |
जन -जन की सेवा यही मेरी पूजा ,
तुम ही तुम हो कोई न दूजा ,
तुमसे  हैं सब कुछ रोशन ,
कण -कण में तू हैं |
अनुभूति

तेरी भक्ति की शक्ति,


मेरे कोस्तुभ धारी!
मेरे
मुरली मनोहर !
तेरी
भक्ति की शक्ति,
तेरे विश्वास का उजाला ,मेरे चेहरे पे चमके ,
तेरे अनन्य अनुराग का तेज ,
मेरी रूह से झलके ,
कान्हा !तुझसे ये प्रीत जो जोड़ी ,
मेरा रोम -रोम कर दिया पावन ,
तेरी भक्ति की शक्ति ने
इन धवल वस्त्रो में ,मेरी आत्मा भी धवल हें|
प्रभु!मेरी आत्मा में बसे ,
तेरे अक्ष्णु विशवास की तरह , 
मेरे मस्तक के रक्त बिंदु की तरह
फैला जीवन में नव सृजन का ये उजाला
तेरे श्री चरणों में शीश नवा के |
ओ कोस्तुभ धारी!
पाकर आप को इस आत्मा में धन्य हुई |
आप के श्री चरणों में कान्हा जी


अनुभूति

फ़रिश्ता


इंसान के बुत की करू इबादत केसे ?
में तो करती हूँ फ़रिश्ते की बंदगी|
इंसान तो अक्सर दे दिया करते हैं,
धोखा जीवन के रास्तो पे ,
फ़रिश्ते तो साथ होकर भी दीखते नहीं ,
जीवन के रास्तों पे |
खुदा मिला मुझे अगर तो कहूँगी 
दे दे मुझे संसार का दुःख सारा ,
अगर बदले में
जो दुवाओं में फ़रिश्ता कोई तुम सा मुझको आ मिले |
मांगने को और कोई सोगात बाकी नहीं
जो जीने को इन सांसों में  नाम आप का मिले|

अनुभूति

शुक्रवार, 27 मई 2011

ज्ञान का समन्दर

ओ कान्हा जी ,
आप तो चौसठ कलाओं के ज्ञाता ,
एक - एक भी सीखी प्रभु तो 
चौसठ जनम लेना होंगे ,
तेरी लीलाओं को समझने के लिए,
मुझे अभी कई जनम और लगेंगे प्रभु !
एक भागवत ही नहीं अभी समझ नहीं आई 
कोनसी कृष्ण लीला समझ आएँगी मुझे
प्रभु! 
आप  तो ज्ञान का समन्दर और
में नन्ही सी बूंद 
पता नहीं कँहा खो जाउंगी इस समन्दर में
थोड़ा -थोड़ा ही सही,
सीखना चाहती हूँ सब कुछ
बस ये ही में जीवन में  कर सकती हूँ|
में अल्प बुद्दी ,अज्ञानी प्रभु !
तेरा नाम लेने के सिवा मुझे आयें न कोई और काम |




अनुभूति

माँ

वो शांत ,स्वच्छ गंगा की लहरें  ,
सदा से मुझे खिचती आई हैं ,
अपनी माँ ,की गोद की तरह  ,
जेसे शांत सो जाउंगी में, माँ  गोद में ,
बुला लो मुझे अपने घर उन्ही पहाडों की गोद में ,


सब से छुट के,
बंधी कँहा हूँ किसी से 
बस अपने ही स्वार्थ से 
स्वार्थी बन के बाँध रखा हैं 
कुछ पलों के बंधन को
सारे बंधन शून्य हैं नगण्य हैं |

बस अपने चारो तरफ 
तन्हाई और सफेद शांत नीर ही नजर आता हैं |
ओ माँ ,मुझे स्वीकार करो मुझे अपनी गोद में ,

 माँ , तेरे वात्सल्य को महसूस किया हैं मेने 
तेरे हर शब्द में , अपनी पुकार के जवाब में 
तुम  आनंदरुपा.ब्रहम  विद्या ,दुर्गा ही हो न ,


कितनी करुणामयी हो न माँ ,
जब कोई नहीं पास तुमने स्वीकार कर लिया मुझे 
इस तन्हाई में और ज्वर में ,
मेरे अपने होने का दावा  करके अधिकार जताने वालो ने 
भी मुझे स्वीकार नहीं किया .
और तुमने बड़ी सरलता से एक निवेदन , 
एक पुकार पे दे दी अपनी गोद
इसीलिए तो तुम माँ हो ,

चाहें वो मेरे लिए तेरी लहरों की गोद हो,
या तेरी आरधना की छाया ,
दोनों में ही अथाह शांति और अथाह स्नेह भरा पड़ा हैं |
मुझे नहीं करनी पड़ेगी किसी से विनती .
न लगानी होगी स्नेह की गुहार 
जी भर के रो सकुंगी तेरे आँचल में 
और कह सकुंगी अपनी हर पीड़ा
जो किसी से नहीं कहा , कह सकुंगी तुमसे 
अपने अधूरे अस्त्तिव की पीड़ा,
समझा सकुंगी तुम्हे माँ ,
मेरा वात्सल्य तो सूखता ही जा रहा हैं,
मेरी आत्मा की तरह
पर माँ तेरी गोद देखकर दिनों से बैचेन
तन और मन की वेदना से लडती अब थक गयी हूँ
और फुट पड़ी हैं अतृप्त आत्मा ,
हां ,माँ मुझे कुछ घड़ी यूँ ही,
अपने आंचल की छावँ में सो जाने दो |
न जाने कब से प्यासी हूँ तुम्हारे वात्सल्य के लिए माँ

अनुभूति

ओ !मेरे सपनों के सोदागर !

 ओ !मेरे सपनों  के सोदागर !
मेने देखा नहीं कभी तुम्हे , 
बस अपनी सांसो में 
एक कल्पना बनाना कर छिपा रखा हैं ,
अपने अंतस में
जब भी सुनती हूँ कोई गीत मिलन का
तो तड़प उठती हूँ कोई होगा कही 
जो इन आँखों से ढलते अश्को को अपने अधरों से पी जाएगा ,
और कहेगा , अनु अब नहीं !
विशवास करो मेरा तुम्हारे साथ ही खड़ा हूँ ,
तुम्हारी आत्मा में ,अनु देखो तो सही ,
और सुनती हूँ कोई गीत विरह का तो लगता हैं 
कोई मेरे लियें भी बैचेन हो रहा होगा ,
फिर भी सही नहीं जानती अपने अंतस में छिपी 
उस चाहत की तड़प ,
लगता हैं कभी वो आये और 
मुझे कहे थोड़ा और इन्तजार करो में आ रहा हूँ
तुम्हे लेने इस संसार से ,
में खड़ा करूंगा तुम्हे इस दुनिया के सामने 
मेरे अन्दर की कमजोर नारी करती हैं बाते 
अपने अंतस में छिपे सपनो के सोदागर से
जो ,यंहा कही नहीं मेने देखा | 

बस महसूस ही करती रही हूँ अपनी आत्मा से 
तुम्हे ओ मेरे सपनी के सोदागर !
"अनुभूति "


तेरी विशालता , मेरे राम !

मेरे राम ,

जितना स्नेह दिया , जितना दिया स्वप्न संसार 
केसे चुका सकुंगी में ,कहो आप का ये आभार ?

गीत दिए जीवन को ,प्रीत दी मन के सुने आंगन को 
एक बार नहीं कहता क्यों मन इन चरणों से उठाकर गले लगाने को ?


जितना सरल ह्रदय आप का ,
उतनी ही तन  कठोर हैं आप का
सारा स्नेह भी मेरे नाम 
सारा त्याग भी मेरे नाम 

एक तरफ स्नेह का सागर
और दूजी तरफ विष का प्याला ,
भी इस अहिल्या के नाम 


प्रभु ,आप की लीला आप ही जानो ,
में जानुं सिर्फ सेवा का नाम ,
जो मन हो जाए दो दे दीजो 
मुझे अपनी चरण सेवा का काम 


इस बेबसी की जिन्दगी में करू क्या ?
नहीं लूँ अगर तेरा नाम ,जीयू क्या ?

मरना मंजूर  नहीं तेरी आँखों को ,मेरे राम !
जी जाने को ,नयी चेतना को जगाने का देते हो जो ज्ञान ,मेरे राम !

 हर ज्ञान स्वीकार ,करू धारण में शिरो धार्य ,
 देखू नित में आकाश , करू याद सूर्य प्रणाम |

मुझे भी शक्ति दीजो ,ज्ञान दीजो बस ये ही मांगू |

अनुभूति 

गुरुवार, 26 मई 2011

ये ही मेरा जीवन तप हैं !


कान्हा जी!
तेरे स्नेह के आगे नतमस्तक हूँ|
कितना स्नेह जीवन में भर दिया हैं !
एक सपना अधूरा था,
आप ने अपने होठों को ,
अपनी बांसुरी से लगा के पूरा कर दिया हैं |
तेरी मधुर मुरली मेरी साँसों में जीवन रस घोले ,
जितनी बार बंद करू आँखों को
मेरा कोस्तुभधारी मुझे पुकारे ,
तेरे मन में होगी पीड़ा में कँहा समझ सकू !
मुर्ख , अज्ञानी ,नादान
में तो सदा से ही करती रही अपनी ही वाणी ,
मेने नहीं तेरी निस्वार्थ स्नेह की कदर जानी ,
मेरे कान्हा ,
अब तो में तेरी दीवानी भी नहीं ,
बन गयी हूँ चरणों की दासी बस !
मेरा तप , तेरी भक्ति ही ,
जीवन आरधना मेरी
बसी रहे तेरी मुरली की मधुर वाणी
मेरे जीवन में बस !
ये ही मेरा जीवन तप हैं ,
मेरे कोस्तुभ धारी !

अनुभूति

स्नेह की चांदनी .

ओ कान्हा ,
तेरे अनन्य अनुराग की चांदनी छाई हैं ,
राधा के मुख पे .
तेरी मुरली की मधुर तान से ,
हर तरफ गीत गा उठा हैं मौसम ,
गोपियन संग राधा ,बार - बार,
अंखियन में काजल लगा देख रही दर्पण ,
कभी ये पायल पहने कभी वो ,
खनकती राधा यूँ
देख - देख राधा, गोपियन से ही लजाएँ
सुन तेरी मुरली की धुन ,
बस नहीं खुद पे
सारे सिंगार छोड़ चली आई
दोडी आई युमना तट पे .
श्याम तो दीवाना राधा के मन का ,
किस रूप से वो मोह बंधन में बंधे ,
रूप नहीं ,रंग नहीं
कन्हियाँ तो चाहे स्नेह की चांदनी .

अनुभूति


बुधवार, 25 मई 2011

मेरे मुरलीवाले !

मेरे कान्हा!
मेरे मुरलीवाले !
हर दर्द में सह लू ,
हर वेदना में हँस के पी जाऊं ,
पर तेरे चेहरे की कोई सिलवट,
देख न जी पाऊं |
तेरे इन अधरों पे ,
खेलती मुस्कान ही मुझे प्यारी लागे |
मेरे गिरिधर !
तेरी बंसी की धुन की में दीवानी 
पर तेरी धुन में छिपी आह मुझसे सही न जाएँ |
अपनी बंसी की धुन पे
गीत ऐसा सुनाओ मेरे गिरिधर की 
जिन्दगी  झूम उठे ,
और में तेरे कदमो की बंदगी करते-करते
तुझमे ही विलीन हो जाऊं |
उदास हैं जिन्दगी ,
जीवन का कोई राग छेड़ दो कान्हा !
जी जाएँ तुम्हारी मीरा ,
गा उठे राधा रानी ,
रुक जाएँ इन अखियन से बहते नीर 
आज मुरली की ऐसी मधुर तान छेड़ दो ,
कभी रास रचाया था ,
जो तुमने अपनी राधा संग 
आज वो फाग छेड़ दो |
अनुभूति

मेरे निराकार जगत के स्वामी !

प्रभु!
मेरे कन्हियाँ !

में मुर्ख ,अज्ञानी ,करती रही 
सदा तुम्हारे साकार रूप की भक्ति ,
मेरी आत्मा में बस गया तेरा ,
"बंसी अधर रखे रूप सलोना  "
कितना तडपी  हैं मेरे आत्मा ,
तेरे अधरों की बंसी की आह से ,
तेरे साकार रूप की तपस्या के में लायक नहीं ,
इस रूप में वेदना ही मेरे नाम लिखी हैं प्रभु !
शायद  ये ही मेरी अनन्य भक्ति का पुरस्कार हो .

दिल करता हैं आज,
अपने दोनों हाथो की नसों को  काट ,
बह जाने दू सारा रक्त इन शिराओं से ,
ताकि तुम आजाद हो सको मेरी रूह से,
और में खो जाऊं अपने यथार्थ सत्य में , 
हां अपनी मृत्यु की बाहों में सुकून से .


लेकिन फिर भी डरती हूँ ,वंहा भी तेरे पास आई ,
तो तुम कहोगे"अनु" तुम यंहा कँहा से चली आई ,
तुम्हारी अभी और सजा बाकी हैं ,
जाओ एक जनम और लो और बाकी की पीड़ा भी सहो ,
ये सोचकर ही हाथ मेरे थम जाते हैं |

और में तुम्हारे कदमो में बैठ कह उठती हूँ
मेरे कन्हाई !
अभी जो सजा बाकी हैं सब दे दो ,
चाहो तो मुझे,
भीष्म की तरह हजारों बाणों की नोक से छलनी कर दो
मुझे अब कोई फर्क नहीं पड़ता ,
मुझे दर्द नहीं होता ,
वो दर्द भी मेरे आगे हार गया हैं प्रभु !
ये प्राण तुम्हारी आज्ञा के बगैर नहीं निकलेंगे ,
मेरे कोस्तुभ के स्वामी !

भीष्म की मुक्ति के दिन भी तुम सामने खड़े थे न ,
मेरी मुक्ति के दिन भी आओगे ना !
तुमको आना होगा मेरे माधव!
उस दिन तो मेरे लिए ,
आओगे न !

बस इन आँखों से बहता ये नेह नीर ,
तुम्हे पुकारे मेरे निरकार माधव !
अब मुक्ति दे भी दो |
अब बस रहम कर भी दो |

मेरे माधव !
दे मुक्ति मेरी यातनाओं का अंत का भी दो .
मेरे नारायण !
मेरे निराकार जगत के स्वामी !
उस लोक के वासी कभी तो अपना क्षीर सागर छोड़ मेरी भी पुकार सुन लो |
  

अनुभूति




एक भेट मेरे मित्र को सालो बाद अपने घर अपना बेटा होने की ख़ुशी में ,

एक भेट मेरे मित्र को सालो बाद अपने घर अपना बेटा होने की ख़ुशी में ,
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
मेरे मित्र ,
मेरे पास दुवाओं के सिवा ,
कुछ भी नहीं तुम्हे देने को ,
जानती हूँ सालो की इस वेदना को भोगा हैं ,
तुम्हारी पत्नी ने ,तुमने ,
मेने कँहा था तुमसे की ईश्वर जो भी देता हैं अपनी मर्जी से,
वो बहुत खुबसूरत और मासूम होता हैं |
और तुम लड़ते रहे मेरे ईश्वर से हमेशा .

वो बहुत कठिन  परीक्षाएं लेता हैं ,
खुशनसीब हो जल्दी सफल होगये .
तुम उसकी परीक्षाओं में तुम .
ईश्वर इसी खूबसूरती से सदा तुम्हरा जीवन भरा रखे |
बस कभी अपने विशवास को यूँ हिलने नहीं देना ,
क्योकि अभी तो जीवन की बहुत परीक्षाएं  बाकी हैं मेरे मित्र !
मेरी उस मासूम बहन को बहुत स्नेह देना |
 तुम्हारे चाँद की सारी बलाएँ में अपने सर लेती हूँ | 
सदा यूँ ही खुश रहो ,अपने अनुराग को यूँ ही सहेजते रहो .
,मुस्कराते रहो फूलो की तरह

अनुभूति

केसे पुकारू तुम्हे ?

मेरे कन्हियाँ!
केसे पुकारू तुम्हे ?
जितना रोम -रोम मुझमे बसे थे तुम ,
बूंद -बूंद इन अखियन से ,
निकलकर बहे जाते हो ,
केसे कहू तुम्हे की,
किस  तरह तुम्हे!
मेरे तन , मन से निकाला गया हैं |
मुझे इस दुनिया के पुरुष ने ,
अपनी अधीनता का एहसास दिलाया हैं |
बह जाओ अब जीवन से ,बह जाओ |
तुम ने तो मुझे कब का भुला दिया था कान्हा!
में ही बांधे बेठी थी तन ,मन की ये डोर '
और तुमने मुझेकिसी न किसी रूप में आकर मुझे झकोर के 
अपने साथ न होने का एहसास दिला ही दिया हैं |
नहीं पुकारूंगी कभी तुम्हे , कभी नहीं |
बह जाओ जितना बह सकते हो मेरे रोम -रोम से 
जिस्म -को जिस्म ही रह जाने दो ,
ये दुनिया ये ही चाहती हैं |
मेरे चाहने न चाहने से कभी कुछ  हुआहैं क्या ?
इसीलिए कभी कुछ बदेलगा ,
ये सोच के ही में लागती रही
तेरे कदमो में गुहार ,
और तुमने 
मेरे स्नेह को परिभाषित कर दिया 
सहानुभूतियों में ,
केसे पुकारू तुम्हे अब ?
बह जाओ जितना बह सकते हो !



अनुभूति

मंगलवार, 24 मई 2011

मेरे श्रीहरी

इस संसार से परे,
जिस दुनिया में बसे हो
मेरे श्रीहरी  !
मेरे ईश्वरतुझे पुकारती हैं,

मेरी विदीर्ण आत्मा ,
कँहा हैं प्रभु !अब तो सुन , 
कभी तो इस धरती पे आके भी देख
में पुकार सकती हूँ तुम्हे केवल ,
नहीं बैठ  सकती तेरी साधना में ,
नहीं कर सकती कोई आरधना.
येआत्मा
में नहीं चढ़ा सकी में 
अपनी आत्मा का ये,
मलिन पुष्प तेरे चरणों में 
कितना कुछ सहेज रखा था मेने 
तेरी साधना के साथ ,
इस जीवन को तपोवन बना की थी,
मेने तेरी भक्ति 
ईश्वर तुने एक ही पल में ,
मुझसे छीन लिया मेरा सब कुछ ,
मेरे राम में सीता नहीं थी ,
कभी में तो अहिल्या भी न बन सकी ,
केसे में कर सकुंगी  सामना खुद का ,
किस गंगाजल से धो के कर सकुंगी 
अपने को पवित्र ,
इस जनम में कभी नहीं अब |
आसुंओं से धुल जाता तो में धो भी लेती 
ये नहीं धुल सकता कभी किस अमृत से भी अब .
अनुभूति 


दमन

तुम्हारी वो क्रूर बड़ी -बड़ी आँखे घुर रही थी उसे ,
समझ ही नहीं पायी वो तुम्हरा अंदेशा ,
कितनी भूख सिमटी हैं पुरुष
तुम्हारे अंतस में तन की ,
कितनी ही रातों तुमने किया हैं'
पत्नी के साथ भी बलात्कार ,
और दिन  में किया हैं
उसकी भावनाओं का दमन 
तुमने उसके मासूम हृदय पर कभी नहीं रखा ,
अपने स्नेह का हाथ ,
अपने स्वार्थ के लिए ,
सदा तुम खेलते रहे उसकी भावनाओं से ,
और बदले में दे दिया करते हो सहानुभूतियों का नाम ,
स्नेह के बदले भी तुम सहानुभूति उसके नाम करते हो ,
और अपनी आत्मा के सत्य से छिपाकर,
ये तोहमत उसके नाम करते हो ,
तन ,मन आत्मा हार चुकी होती हैं जब ,
एक पल में तब झटक लिया करते हो अपना दामन ,
हर फेसला तो तुम ही करते हो ,
उसका जिस्म ही सबसे बड़ी खूबसूरती  होता हैं न पुरुष !
तुम्हारे लिए .
 क्यों नहीं सालों साथ रहने के बाद भी,
झाँक नहीं पाते उसकी आत्मा में ?
तन तक ही क्यों सिमटी रह जाती हैं तुम्हारी भूख !
और छोड़ जाते हो उसकी देह पर अपनी वासनाओं के निशान,
निशान तो समय मिटा देता हैं ,
लेकिन आत्मा पे लगे जख्म,
सहानुभूति बन कर हमेशा हरे रहते हैं |
"अनुभूति "

तेरी तलाश

निकला था तेरी तलाश में भटकता ही रहा हुआ जो सामना एक दिन आईने से , पता चला तू तो ,कूचा ए दिल में कब से बस रहा ................