अंतिम कविता
में खोजती रही आत्मा की गलियों में
करूणा और स्नेह से पुकारती रही |
ना कभी पहले मेरा साथ तू था
न कभी आज खड़ा हैं मेरे ईश्वर
में लडती ही रही तुझसे
अब नहीं लडूंगी
न खोजूंगी किसी रामायण में
न किसी भागवत में
मेरा अंतस ही जब शून्य हैं
तो क्या करुँगी इस दुनिया में जी के
तुझे पाके
तू हमेशा ही पत्थर रहा मेरे लिए
और में फिर भी खोजती रही
तुझमे सत्य का साथ
ना अब कोई साथ ना दुहाई
खतम करती हूँ ये खोखले शब्द
और अंत हिन् जीवन का ये सफ़र
कोई दुःख नहीं मुझे अब
तेरे होने का
में तो तेरी चाहत में,
जीवन की चाहत में भूल ही गयी थी
की तन्हा दुनिया में आई हूँ ,
और तन्हा ही जाना होता हैं |
सब स्वीकार करती हूँ ,
अब कोई सजा तू मुझे नहीं दे सकेगा मेरे ईश्वर
कुछ रहेगा नहीं बाकी तो क्या देगा तो मुझे कोई सजा |
अपने सारे शब्द ;अर्थ ;भाव , अनुभूतियाँ
मोह , बंधन ,वचन सब कुछ यही छोडती हूँ
सब कुछ अर्पित करती हूँ कुछ साथ नहीं जाएगा
सिवा मेरी आत्मा के |
अनुभूति