वो शांत ,स्वच्छ गंगा की लहरें ,
सदा से मुझे खिचती आई हैं ,
अपनी माँ ,की गोद की तरह ,
जेसे शांत सो जाउंगी में, माँ गोद में ,
बुला लो मुझे अपने घर उन्ही पहाडों की गोद में ,
सब से छुट के,
बंधी कँहा हूँ किसी से
बस अपने ही स्वार्थ से
स्वार्थी बन के बाँध रखा हैं
कुछ पलों के बंधन को
सारे बंधन शून्य हैं नगण्य हैं |
बस अपने चारो तरफ
तन्हाई और सफेद शांत नीर ही नजर आता हैं |
ओ माँ ,मुझे स्वीकार करो मुझे अपनी गोद में ,
माँ , तेरे वात्सल्य को महसूस किया हैं मेने
तेरे हर शब्द में , अपनी पुकार के जवाब में
तुम आनंदरुपा.ब्रहम विद्या ,दुर्गा ही हो न ,
कितनी करुणामयी हो न माँ ,
जब कोई नहीं पास तुमने स्वीकार कर लिया मुझे
इस तन्हाई में और ज्वर में ,
मेरे अपने होने का दावा करके अधिकार जताने वालो ने
भी मुझे स्वीकार नहीं किया .
और तुमने बड़ी सरलता से एक निवेदन ,
एक पुकार पे दे दी अपनी गोद
इसीलिए तो तुम माँ हो ,
चाहें वो मेरे लिए तेरी लहरों की गोद हो,
या तेरी आरधना की छाया ,
दोनों में ही अथाह शांति और अथाह स्नेह भरा पड़ा हैं |
मुझे नहीं करनी पड़ेगी किसी से विनती .
न लगानी होगी स्नेह की गुहार
जी भर के रो सकुंगी तेरे आँचल में
और कह सकुंगी अपनी हर पीड़ा
जो किसी से नहीं कहा , कह सकुंगी तुमसे
अपने अधूरे अस्त्तिव की पीड़ा,
समझा सकुंगी तुम्हे माँ ,
मेरा वात्सल्य तो सूखता ही जा रहा हैं,
मेरी आत्मा की तरह
पर माँ तेरी गोद देखकर दिनों से बैचेन
तन और मन की वेदना से लडती अब थक गयी हूँ
और फुट पड़ी हैं अतृप्त आत्मा ,
हां ,माँ मुझे कुछ घड़ी यूँ ही,
अपने आंचल की छावँ में सो जाने दो |
न जाने कब से प्यासी हूँ तुम्हारे वात्सल्य के लिए माँ
अनुभूति