शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

विवाह वर्षगांठ

मेरे राम तुम आशीषों ! 
आठ सालो का ये बंधन आज जुडा था 
प्रियतम संग बंधी थी में आज 
जीवन की बगियाँ में खिले नहीं फुल कांटे ही मिले 
जो मिला हंस के स्वीकार किया हैं 
ये बंधन आज फिर नवीन हो उठा हैं 
जो तुम्हारे अमरत्व का आशीष मिला हैं 
निभाती चली हूँ हर रस्म 
,हर वचन लेकिन जो बंधा हैं आत्मा संग 
वो प्रीत तुम्ही से हैं मेरे श्याम ! 
मेरी आत्मा के अधिकारी तुम हो इस तन से मुझे न काम 
जब तक न निकले उन चरणों में मेरे प्राण !
 केसे दूर होगा आत्मा का ये विचलन 
सबके संग तुम्हे निभाना हैं मुझे में येजानु मेरे राम !
जिद हैं तुम्हारी तो में हंस के मानु 
तुम कह दो विष प्याला में पि जाऊं 
लेकिन मुक्त न हो सकेगी मेरी आत्मा 
बिन चरणों की सेवा के मेरे राम ! 
जीत लिया तुमने अपने अपनत्व से आत्मा का कोना कोना 
फिर भी मुझे इस संसार को हैं अभी जीना 
में जियूंगी लेकिन हर सांस पे सदा होगा तुम्हरा नाम 
में ऋणी हूँ तुम्हारी मेरे राम !
कोई छुटे मुझसे गम नहीं 
तुम न जाना इन साँसों से दूर 
जी न सकेगी तुम्हारी पगली 
ये जानो तुम ! 
मेरे जगदीश्वर राम !
श्री चरणों में तुम्हारी अनु















मेरे राम ! 
आज पुलकित हैं मन करके
तुम्हारे चरणों में प्रणाम 
में जानू में खोज रही वो कस्तूरी ,
जो बसी मेरी आत्मा मे ही बन कर राम 
मे  जानू मे विचलित हूँ !
पाकर  तुम्हरा अपनत्व कुछ बिखर पड़ी हूँ !
रूह से फुट पड़ीं हूँ !
अश्रु धाराओं से बिखर पड़ी हूँ !
पाकर कुछ पल तुम्हारे आत्मीय अपनत्व की छाँव
हां  टूटी कश्ती को स्नेह की एक धार जीवन दे ग्ई 
तुम्हरा  हर आदेश मेरी आत्मा ने माना हैं 
मानूंगी सदा जो तुम ने कहा 
,दिया इस आत्मा को ज्ञान
आज इस जीवन का वही करुँगी मे काम 
 मुझे नहीं आया समझ अपना भला बुरा 
इसीलिए भूल गयी थी राह  जीवन की 
भटकी  हूँ रास्तों से 
जिसकी राहों का दीप आप स्वयं 
हो  मेरे राम ! 
क्यों  अन्धेरा हो इस जीवन 
फिर .................................
मुझे दे अपने स्नेहिल अपनत्व की छाँव 
कुछ देर इस मासूम मन को बिखर जाने दो 
ढलते अश्को को अपने कदमो पे रिस  जाने दो 
मेरा निश्चल स्नेह ही मेरी पूंजी हैं तुम पर ही ये बह जाने दो 
जो कहा !
मेने तुम्हारी खामोश सदाओं से,
सब इस रूह ने सुन लिया .
सदा विशवास किया हैं तुमने 
सदा रखना ,
अपनेअसोम स्नेह आशीष
से इस मस्तक पे तुम्हारा हाथ 
इतनी ही विनती हैं बस 
जंहा खड़ी थी वही रहूंगी !
अपने सात जन्मो के कर्तव्य को निभाती चलूंगी 
जो तुमहरा हैं ये आदेश तो मे ये ही करती चलूंगी 
धन्य हूँ ! 
जानते हो मेरे राम ! 
जिसने पाया हैं 
तुम्हारे  चरणों का ये आशीष ! 
आत्मा  का आत्मा को  स्नेहिल 
वंदन करो स्वीकार 
मेरे राम ! 
श्री चरणों मे तुम्हारी अनु































 

एक अपनत्व तुम्हरा

मेरे राम ! 
तुझको पुकारे ये आत्मा हर सांस  

मुझे नहीं आये कोई पूजा आरधना कोई नाम 
में जानू ,में मानु तुझे अपना राम 
संसार के तुम अधिपति 
और मेरे बुनकर हो मेरे राम !
हां तुम ही तो हैं जिसकी आखों ने संजोये हैं 
मेरे लिए सपने 
और में गूम इस मिथ्या संसार में कुछ नहीं कर सकी तुम्हारे नाम 
एक दिन वो आयेगा जिस दिन छोड़ में चल पडूँगी तुम्हारी राहे 
 मेरा विशवास करना 
देना अपने अक्ष्णु विशवास का साथ 
में ज़िंदा हूँ क्योकि मेरी साँसों में हिम्मत बन के जीते हैं मेरे राम 
मुझे आई स्नेह समर्पण की भाषा बस न आया कोई दूजा काम 
मेरा सपना तेरे कदमो की आशीष नहीं 
और कोई चाह इस जीवन की 
अब न बिखरुंगी 
सिर्फ एक कदम उठाने को पिछला कदम भूलूंगी 
सब कुछ मिट गया हैं इन सांसो से 
बस बाकी हैं इस विदिरण ह्रदय में 
 एक अपनत्व तुम्हरा 
मेरे राम ! 

 श्री चरणों में अनुभूति




तेरी तलाश

निकला था तेरी तलाश में भटकता ही रहा हुआ जो सामना एक दिन आईने से , पता चला तू तो ,कूचा ए दिल में कब से बस रहा ................